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कोरोना की तीसरी लहर की वजह बनेगा Delta plus? शाहिद जमील से बातचीत

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सबसे पहले भारत में पहचाना गया कोरोना का डेल्टा वेरिएंट दुनिया के कई देशों के लिए चिंता का सबब बन चुका है. डेल्टा वेरिएंट के बाद अब डेल्टा प्लस (Delta plus) वेरिएंट को लेकर खतरे की आशंका जताई जा रही है.

डेल्टा प्लस वेरिएंट वाले मामलों की जगह-जगह पहचान की जा रही है.

इंडियन SARS-CoV-2 कंसोर्टियम ऑन जीनॉमिक्स (INSACOG) के हालिया निष्कर्ष के आधार पर डेल्टा प्लस को वेरिएंट ऑफ कंसर्न (VOC) बताया गया है.

फिट से खास बातचीत में इससे जुड़े तमाम सवालों के जवाब जाने-माने वायरोलॉजिस्ट डॉ शाहिद जमील विस्तार से समझा रहे हैं.

डेल्टा प्लस वेरिएंट अब भारत में 'वेरिएंट ऑफ कंसर्न' बताया जा रहा है, इसकी वजह क्या है?

डेल्टा प्लस एक नया म्यूटेशन-K471N है. ये म्यूटेशन पहले बीटा वेरिएंट में देखा गया था, जो सबसे पहले साउथ अफ्रीका में मिला था. कई वैक्सीन ट्रायल और वायरस पर स्टडी से हमें पता चला है कि साउथ अफ्रीका में जब बीटा वेरिएंट फैल रहा था, तब वैक्सीन ने बेहतर एफिकेसी नहीं दिखाई.

अब ये म्यूटेशन डेल्टा वेरिएंट में आ गया है, जो कि चिंता का विषय है. आप इसे लेकर सोच सकते हैं कि दो 'वेरिएंट ऑफ कंसर्न' साथ आ रहे हैं.

अब देखना है कि क्या इसका असर न्यूट्रल होने जा रहा है यानी इससे ट्रांसमिसिबिलिटी में बढ़त न हो, ये वेरिएंट इम्यून सिस्टम को और न भेद पाए या इसका असर जैसा है वैसा ही रहे, इस बारे में अभी हमें जानकारी नहीं है.

'वेरिएंट ऑफ कंसर्न' या 'वेरिएंट ऑफ इंटरेस्ट', ये नॉमेनक्लेचर ग्लोबल लेवल पर WHO द्वारा तय किया गया है. लेकिन मुझे लगता है कि ये म्यूटेशन पहले से ही 'वेरिएंट ऑफ कंसर्न' माने जा रहे वेरिएंट में हुआ है, इसलिए ये तार्किक है कि इसे 'वेरिएंट ऑफ कंसर्न' ही कहा जाए.

मौजूदा वैक्सीन डेल्टा वेरिएंट के खिलाफ कैसे काम कर रहे हैं?

इसे देखने के 2 तरीके हैं- एक लैब टेस्ट का तरीका- जिसमें जिन लोगों ने वैक्सीन डोज ली है - चाहे कोविशील्ड हो या कोवैक्सीन, उनका सीरम सैंपल लिया जाए और देखा जाए कि क्या वो वायरस को लेबोरेटरी डिश में अब भी न्यूट्रलाइज कर पा रहे हैं.

उनमें से कुछ एक्सपेरिमेंट हुए और उनमें दिखा कि दोनों वैक्सीन से डेल्टा वेरिएंट के न्यूट्रलाइजेशन में कमी देखी गई, लेकिन जरूरी है 'रियल वर्ल्ड पॉपुलेशन स्टडी' को देखना कि आबादी में क्या हो रहा है.

भारत में ऐसी दो स्टडी के बारे में मुझे पता है. हालांकि वो कोविशील्ड या कोवैक्सीन के आधार पर कैटेगराइज नहीं थे, लेकिन हम मान सकते हैं कि कोविशील्ड में ज्यादा असर देखा गया, क्योंकि देश में अधिकांश लोगों को वो वैक्सीन दी गई है. सिम्प्टोमेटिक इंफेक्शन के केस में सिंगल डोज का असर कम है- करीब 40-50%, जबकि 2 डोज के बाद 60-70% तक असर देखा गया. गंभीर मामलों में, हॉस्पिटलाइजेशन के मामले में बेहतर एफिकेसी देखी गई है. नए वेरिएंट से इंफेक्शन ज्यादा हो सकता है लेकिन गंभीरता के खिलाफ वैक्सीन कारगर है. आउटकम बेहतर हैं. पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड की स्टडी में फाइजर और एस्ट्राजेनेका वैक्सीन ने भी ऐसे ही नतीजे दिखाए हैं.

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डेल्टा वेरिएंट के मद्देनजर वैक्सीन डोज के बीच गैप घटाया जाना चाहिए?

कोई भी पॉलिसी सबूतों के आधार पर अपनाई जानी चाहिए. अगर वैक्सीन सप्लाई का मुद्दा न हो तो 6 से 8 सप्ताह तक का गैप आइडियल गैप है. लेकिन सवाल है कि अगर वैक्सीन की सप्लाई पर्याप्त नहीं है तो आपको कौन सी स्ट्रेटजी अपनानी है- बड़े समूह को थोड़ी सुरक्षा या एक छोटे समूह को बेहतर सुरक्षा प्रदान करना है.

पब्लिक हेल्थ के नजरिये से वैक्सीन के 2 डोज में मौजूदा 12 से 16 सप्ताह के गैप का फैसला सही है. कोविशील्ड का सिंगल डोज गंभीर बीमारी में 70% तक सुरक्षा प्रदान कर सकता है. लेकिन अगर सप्लाई पर्याप्त हो तो गैप कम किया जा सकता है.

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क्या देश में जीनोम सीक्वेंसिंग बढ़ाए जाने की जरूरत है?

कोई वायरस किस तरह का है, किस तरह का वह दिखता है, इन सभी चीजों की जानकारी जीनोम के जरिए मिलती है.आसान शब्दों में कहा जाए तो जीनोम सीक्वेंसिंग एक तरह से किसी वायरस का बायोडाटा होता है.

दिसंबर 2020 तक भारत में जीनोम सीक्वेंसिंग रेट 0.05% था. सीक्वेंस को महामारी से जोड़ना जरूरी है ताकि पब्लिक हेल्थ को लेकर फैसले लिए जा सके. सीक्वेंसिंग का रेट एक समय 1% पर भी पहुंचा. जब सेकेंड वेव की मार पड़ी और मामलों में बेतहाशा बढ़त हुई तब सीक्वेंसिंग मुमकिन नहीं था.

अब इंडियन SARS-CoV-2 कंसोर्टियम ऑन जीनॉमिक्स (INSACOG) 0.01% के रेट से सीक्वेंसिंग कर रही है. ये पिछली बार की तुलना में दोगुनी है. इसी सीक्वेंसिंग ने डेल्टा प्लस वेरिएंट के बारे में पता लगाया.

INSACOG में 17-18 अन्य लैब जोड़े गए हैं. पहले 10 थे. कई बार कैपोसिटी ज्यादा नहीं होती लेकिन आप भविष्य के लिए बेहतर मेंटरिंग दे रहे होते हैं.

सीक्वेंसिंग के लिए 5% आइडियल रेट माना जा सकता है. लेकिन क्षमता की कमी हो सकती है, रिएजेंट्स की कमी हो सकती है और सीक्वेंसिंग महंगा एक्सरसाइज है. हालांकि, डेल्टा प्लस जैसे वेरिएंट का पता जीनोटाइपिंग एनालिसिस से भी लगाया जा सकता है. हमें इसका इस्तेमाल भी करना चाहिए. लेकिन अभी जितना हम कर पा रहे हैं, वो भी सही है.

डेल्टा प्लस वेरिएंट तीसरी लहर की वजह बन सकता है?

ये कहना मुश्किल है. ये तीसरी लहर को हवा तब दे सकता है अगर इसका इंफेक्शियस रेट मौजूदा समय में फैल रहे डेल्टा वेरिएंट से कई गुणा ज्यादा हो. हालांकि, इस वायरस के सिग्नेचर से अभी वो नहीं दिख रहा है. हमें इसपर नजर रखनी होगी और देखना होगा कि ये आबादी में कैसे मूव करता है.

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