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सोशल मीडिया पर बैन होने के बावजूद लोगों को गुमराह कर रहा ये डॉक्टर

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फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब द्वारा पेज और प्रोफाइल हटा दिए जाने के बावजूद इंटरनेट डॉक्टर बिस्वरुप रॉय चौधरी की तरफ से सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर कोविड-19, डायबिटीज और वैक्सीन के झूठे और भ्रामक दावे फैलाना जारी है.

ऑनलाइन फैक्ट-चेकर देवव्रत पॉल ने जून 2020 में change.org पिटीशन की शुरुआत की और कोविड-19 को लेकर डॉ. चौधरी के दावों के बड़े पैमाने पर वायरल होने की तरफ लोगों का ध्यान खींचा. इसके कुछ समय बाद डॉ. चौधरी के आधिकारिक सोशल मीडिया हैंडल को या तो निलंबित कर दिया गया या उन्हें हटा दिया गया लेकिन इससे भी उनको अपने फॉलोअर तक अपना संदेश पहुंचाने से नहीं रोका जा सका.

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दिसंबर 2020 में डॉ. बिस्वरूप रॉय चौधरी ने कोविड-19 पर एक किताब प्रकाशित की जिसका नाम था- कोविड 1981, वायरस और वैक्सीन. इसमें कोविड-19 और वैक्सीन के बारे में बड़े पैमाने पर कई विवादित दावे किए गए थे. उन्होंने अपनी किताब के प्रचार के लिए निहायत लोकल ‘न्यूज चैनलों’ का इस्तेमाल किया. उन्हें कई यूट्यूब चैनलों और फेसबुक पेजों पर इंटरव्यू देते भी देखा गया था.

सोशल नेटवर्किंग की दिग्गज कंपनी फेसबुक ने सोमवार 8 फरवरी को घोषणा की कि वह कोविड-19 को लेकर गलत सूचना पर अंकुश लगाने की अपने कोशिशों को तेज करेगी और अपने प्लेटफॉर्म से वैक्सीन को लेकर सभी गलत सूचनाओं को हटा देगी.
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यूट्यूब और पिनटरेस्ट भी पहले ही कह चुके है कि वे वैक्सीन को लेकर गलत सूचनाएं हटाने के लिए कदम उठाएंगे. हालांकि, सोशल मीडिया दिग्गजों की कोशिशों के बावजूद ऐसा लगता है कि डॉ. चौधरी प्लेटफॉर्म्स पर लगातार गलत सूचना फैला रहे हैं.

कोविड-19 से लेकर वैक्सीन तक पर गलत सूचना

डॉ. चौधरी ने कोविड-19 को एक गंभीर बीमारी के रूप में लगातार खारिज किया और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दी गई सलाह के उलट कई दावे किए. उन्होंने सरकार के लॉकडाउन लगाने और मास्क लगाना जरूरी करने के फैसले के खिलाफ बात की.

उनकी किताब कोविड1981 ( COVID1981) की शुरुआत “1 लाख रुपये का वैक्सीन चैलेंज” से होती है, जहां वो कहते हैं कि वे लोगों को इस धनराशि का भुगतान करेंगे अगर वे साबित कर दें कि “वैक्सीन से कभी किसी भी तरह की मदद (वित्तीय लाभ को छोड़कर) मिली है.”

उन्होंने यह भी दावा किया है कि उन्होंनेकोविड-19 और दूसरी संक्रामक/ संचारी बीमारियों (चेचक, टायफाइड, टीबी समेत) से पीड़ित 50,000 मरीजों को शून्य इलाज/ धन/ मृत्यु दर के साथ ठीक कर दिया है.”
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किताब आगे कोविड-19 की तुलना एचआईवी-एड्स (ह्यूमन इम्युनो-डेफिशिएंसी वायरस, एक्वायर्ड इम्युनो-डेफिसिएंसी सिंड्रोम) से करती है, जिसके बारे में दावा किया गया है कि ये दोनों ही “काल्पनिक बीमारी” हैं. किताब पूर्व में इस्तेमाल की गई अलग-अलग वैक्सीन के बारे में बात करती है और दावा करती है कि वे बीमारियों को ठीक करने में असरदार नहीं थीं. किताब के अंतिम आधे हिस्से में 56 वैक्सीन-विरोधी दावों की सूची दी गई है, जिनकी कथित रूप से शोध पत्रों के अंशों से पुष्टि की गई है.

कुछ फैक्ट-चेक

दावा 1: RTPCR टेस्ट एफडीए/ मैन्यूफैक्चरर और यहां तक कि PCR-टेस्ट के आविष्कारक द्वारा अनुमोदित नहीं है.

डॉ. चौधरी अपनी किताब में कोविड-19 के खिलाफ जो बुनियादी तर्क देते हैं, उनमें से एक यह है कि वायरस का पता लगाने का टेस्ट- पॉलिमरेज चेन रिएक्शन (PCR) टेस्ट- त्रुटिपूर्ण है. उनका कहना है कि यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने टेस्ट को मंजूरी नहीं दी है और कोविड-19 के टेस्ट के लिए इस्तेमाल की जाने वाली विधि के आविष्कारक ने नहीं कहा है कि इसे वायरस का पता लगाने में इस्तेमाल किया जा सकता है.

डॉक्टर के अनुसार, मामलों की बड़ी संख्या इस वजह से है क्योंकि टेस्ट गलत पॉजिटिव रिपोर्ट देता है.

यही दावा फेसबुक पर भी शेयर किया गया था.

पोस्ट
का
एक
पुराना
स्क्रीन
शॉट
यहां
देखा
जा
सकता
है. (स्रोत:
फेसबुक/
स्क्रीनशॉट)

हमने क्या पाया

आरटी-पीसीआर टेस्ट की मंजूरी पर एक आम गूगल सर्च से पता चलता है कि एफडीए ने 4 फरवरी 2020 को आरटी-पीसीआर टेस्ट को मंजूरी दी है. एफडीए ने फरवरी में एक इमरजेंसी यूज ऑथराइजेशन जारी किया और बाद में जुलाई में इसने अप्रूवल को फिर से जारी किया और दो नए इस्तेमाल शामिल किए- “उन लोगों के लिए जिनको कोविड-19 का लक्षण नहीं है या जिन्हें कोविड-19 संक्रमण का शक करने की कोई वजह नहीं है.”

दावे के दूसरे हिस्से में कहा गया कि टेस्ट के आविष्कारक ने कहा कि यह SARS-CoV-2 वायरस का पता लगाएगा. हालांकि हमने पाया कि कोविड-19 महामारी शुरू होने से बहुत पहले अगस्त 2019 में टेस्ट के आविष्कारक डॉ. केरी बी. म्यूलिस की मौत हो गई थी.

ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया पोस्ट में दिसंबर 1996 में जॉन लॉरिटसेन के प्रकाशित लेख का जिक्र किया गया है, जो HIV और AIDS के बारे में है, न कि कोविड-19 के बारे में. डॉ. म्यूलिस लेख में यह नहीं कहते हैं कि पीसीआर टेस्ट वायरस की पहचान नहीं करेगा, इसके बजाय, वह यह कहते हैं कि पीसीआर टेस्ट पदार्थों की पहचान क्वॉलिटिव रूप से करता है, क्वॉन्टिटिव रूप से नहीं.

उनका कहना है कि, “पीसीआर टेस्ट का मकसद क्वॉलिटिव रूप से पदार्थों की पहचान करना है, लेकिन ठीक इसी खासियत के कारण संख्याओं का आकलन करने के लिए उपयुक्त नहीं है.”

आरटी पीसीआर टेस्ट गलत पॉजिटिव या निगेटिव रिपोर्ट दे सकता है, लेकिन वे कोविड-19 का पता लगाने में ‘सर्वश्रेष्ठ’ है.

हमने इस स्टोरी के हित में, वैक्सीन के दुष्प्रभावों पर शुरुआती दो दावों की भी पड़ताल की और पाया कि दोनों दावे सच नहीं थे.

दावा 2: वैक्सीन ऑटिज्म का कारण बनते हैं

दावे में कहा गया है, “जिन शिशुओं को पैदाइश के पहले छह महीनों के भीतर थिमेरोसाल वाले हेपेटाइटिस बी वैक्सीन से 37.5 माइक्रोग्राम मर्करी मिला, उनमें मर्करी-फ्री हेपेटाइटिस बी वैक्सीन लेने वालों की तुलना में, ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (एएसडी) होने की संभावना 3 गुना अधिक थी.”

ऐसा कहा जाता है कि यह दावा 2013 में ट्रांसलेशनल न्यूरोडिनेरेशन द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र पर आधारित था.

हमने क्या पाया

अमेरिका के सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार, “थिमेरोसाल एक मर्करी-बेस्ड प्रिजर्वेटिव है जिसका इस्तेमाल संयुक्त राज्य अमेरिका में दशकों से मल्टी-डोज वायल (एक से ज्यादा डोज वाली शीशियों) दवाओं और वैक्सीन में किया जाता रहा है.” यह वैक्सीन में बैक्टीरिया के विकास को रोकता है.

सीडीसी बताता है कि थिमेरोसाल का कई बार टेस्ट किया गया है और इसे इंसानों के लिए सुरक्षित घोषित किया गया है क्योंकि इसे इंसानी शरीर आसानी से त्याग सकता है.

अध्ययनों के बावजूद, संयुक्त राज्य अमेरिका में 2001 में थिमेरोसाल को बच्चों की वैक्सीन से हटा दिया गया क्योंकि इसके बारे में कहा जा रहा था कि यह ऑटिज्म की वजह बनता है. हालांकि, यह पाया गया कि थिमेरोसाल को हटाने के बावजूद ऑटिज्म के मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है.

अध्ययन में कहा गया था कि इसमें उन लोगों को शामिल किया गया जिन्होंने 1998-2000 से वैक्सीन ली थी, इसके बाद थिमेरोसाल को वैक्सीन से हटा दिया गया था. इसके अलावा, शोध-पत्र में यह भी कहा गया था कि मर्करी कंजम्पशन के दूसरे स्रोतों का भी विश्लेषण करने के लिए और अध्ययन की जरूरत है.

इसलिए यह दावा सही नहीं है कि हर वैक्सीन से ऑटिज्म होता है.

दावा 3: ज्यादा वैक्सीन सीधे ज्यादा इमरजेंसी केयर के समानुपातिक है

किताब में दावा किया गया है, “जितने कम बच्चों को वैक्सीन लगाई गई थी, आउट पेशेंट मरीजों की संख्या में उतनी ही ज्यादा कमी आई.”

यह साबित करने की कोशिश की गई है कि जिन बच्चों को पूरी तरह से वैक्सीन लगाई गई थी, उन्हें ज्यादा आउट पेशेंट विजिट और इमरजेंसी केयर की जरूरत पड़ी.

हमने क्या पाया

हमने उस अध्ययन को देखा जिसके आधार पर यह दावा किया गया था. द जर्नल ऑफ द अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (जेएएमए) में प्रकाशित पेपर की हेडिंग थी, “अमेरिका में 8 केयर संस्थानों में कम वैक्सीनेशन पर जनसंख्या-आधारित समूह का अध्ययन.”

अध्ययन का उद्देश्य था “2 से 24 महीने के बच्चों में कम वैक्सीनेशन के पैटर्न और रुझानों की जांच करना और कम-वैक्सीनेशन और आयु-अनुरूप वैक्सीनेशन वाले बच्चों में हेल्थकेयर के इस्तेमाल की दर की तुलना करना.”

किताब में जिक्र किए गए पेपर में यह भी साफ लिखा है कि “जिन मां-बाप ने अपने बच्चों का वैक्सीनेशन नहीं कराना चुना, उनके हेल्थ केयर प्रोफेशनल पर भरोसा करने की कम संभावना है और पूरी तरह वैक्सीनेशन कराने वाले पेरेंट्स की तुलना में पूरक/ वैकल्पिक मेडिसिन का इस्तेमाल करने की अधिक संभावना है.”

इस तरह, इसका मतलब यह नहीं है कि कम वैक्सीनेशन वाले बच्चों को कम आउट पेशेंट विजिट की जरूरत होती है. इसके असल मायने यह हैं कि जिन लोगों ने अपने बच्चों को कम वैक्सीन लगवाई थी, उनका हेल्थ प्रोफेशनल पर कम भरोसा होने की संभावना थी और इसलिए वे अस्पताल कम जाते हैं.

किताब में कई और दावे हैं जो या तो झूठे साबित हो चुके हैं या भ्रामक हैं.

किताब में एक और दावा जो किया गया है वह यह है कि कोविड-19 वैक्सीन काम नहीं करेगी क्योंकि वायरस के कई म्यूटेशन हो चुके हैं. हालांकि, शोधकर्ताओं का कहना है कि वायरस में म्यूटेशन एक नियमित घटना है और इसे ध्यान में रखते हुए ही वैक्सीन तैयार की जाती हैं. इसलिए, वायरस के खिलाफ वैक्सीन अभी भी असरदार होगी.

कोविड-19 साजिश के दावे और सोशल मीडिया प्रतिबंध?

बहुत से वीडियो में डॉ. चौधरी ने दावा किया है कि कोविड-19 अमीर और प्रभावशाली लोगों द्वारा रची गई एक बहुत बड़ी साजिश है. उन्होंने मार्च 2020 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन को एक किताब भेंट करने और “कोविड-19 के इलाज में मदद के लिए अपनी सेवाओं” की पेशकश करने के लिए मुलाकात की थी.

वैसे उनके फेसबुक, यूट्यूब और ट्विटर अकाउंट सस्पेंड किए जा चुके हैं, लेकिन नए अकाउंट सामने आते रहते हैं. इनमें से कुछ चैनल नियमित रूप से डॉक्टर को मेहमान के तौर पर बुलाते हैं और उन वीडियो को हजारों बार देखा जाता है. उन चैनलों के फॉलोअर के कारण उनकी दर्शकों तक पहुंच में काफी बढ़ोत्तरी हुई है.

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फरवरी 2020 में उनके निलंबित यूट्यूब पेज के 4,59,000 से अधिक सब्सक्राइबर थे. फिलहाल CoachBSR और Manas Samarth जैसे दूसरे यूट्यूब चैनल, दोनों को मिलाकर जिनकी 10 लाख से अधिक फॉलोइंग है, डॉक्टर को अपने शो में पेश करते हैं.

हमने ऐसे अकाउंट के खिलाफ उठाए जाने वाले कदमों, जो डॉ. चौधरी को कोविड-19 और इसकी वैक्सीन के बारे में गलत जानकारी प्रसारित करने में मदद करते हैं, पर प्रतिक्रिया के लिए गूगल से संपर्क किया, लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं मिला.

फेसबुक पर एक आम सर्च कई ग्रुप, पेज और प्रोफाइल दिखाती है जो डॉ. चौधरी होने का दावा करते हैं. हालांकि कुछ अकाउंट नियमित रूप से पोस्ट नहीं करते हैं, लेकिन इनमें से कुछ अलग-अलग ऑनलाइन चैनलों के उनके इंटरव्यू दिखाते हैं.

हमने प्लेटफॉर्म पर अब भी वायरल हो रही गलत सूचनाओं की एक लिस्ट के साथ फेसबुक से संपर्क किया तो एक फेसबुक प्रवक्ता से हमें यह जवाब मिला, “हम कोविड-19 के बारे में गलत जानकारी को, जो शारीरिक नुकसान पहुंचा सकती हैं, हटाना जारी रखेंगे और लोगों को हमारे कोविड सूचना केंद्र की तरफ से शिक्षित करेंगे. दिसंबर 2020 में हमने कोविड-19 वैक्सीन के बारे में झूठे दावों को हटाना शुरू कर दिया था और आने वाले महीनों में हमारे द्वारा हटाई गई सामग्री की जानकारी को नियमित रूप से अपडेट करेंगे. जो सामग्री हम हटाते नहीं हैं, उस पर स्वतंत्र फैक्ट-चेकर्स की मदद से चेतावनी लेबल लगाते हैं ताकि लोगों को उनके द्वारा पढ़ी और साझा की जाने वाली सामग्री के बारे में ज्यादा पारदर्शी विकल्प मिल सकें.”

डॉ. चौधरी कौन हैं?

डॉ. चौधरी दुष्प्रचार की दुनिया के लिए नए नहीं हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार वह 2010 से कई तरह इलाज के बारे में गलत जानकारी दे रहे हैं. कोई मेडिकल डिग्री नहीं होने के बावजूद वह डायबिटीज का एक्सपर्ट होने का दावा करते हैं. उनकी वेबसाइट का कहना है कि उन्हें जाम्बिया में एक विश्वविद्यालय से, जिसका अब पंजीकरण रद्द कर दिया गया है, डायबिटीज स्टडी में मानद पीएचडी मिली है.

साल 2018 में एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल ऑफ इंडिया ने एक अखबार के विज्ञापन पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसमें उनकी डायबिटीज वर्कशॉप के बारे में बताया गया था.

उन्होंने फलों से बनी एक डाइट की मदद से 72 घंटे में डायबिटीज का इलाज करने के तमाम दावे किए हैं. इस दावे को जांच के बाद FIT की वेबकूफ टीम द्वारा खारिज किया जा चुका है.

देवव्रत पॉल द्वारा स्थापित Bad Science नाम की एक वेबसाइट ने डॉक्टर द्वारा अपने बारे में और मेडिकल क्षेत्र में किए गए कई अन्य झूठे दावों को सूची पेश की है. वेबसाइट का कहना है कि डॉक्टर इससे पहले प्रोडक्शन इंजीनियरिंग कर चुके हैं और 2005 में ‘याद रखेंगे आप’ नाम की बॉलीवुड मूवी में काम कर चुके हैं.

डॉ. चौधरी इकलौते नहीं हैं, कई और ‘डॉक्टरों’ ने महामारी के बीच लोकप्रियता हासिल की है और कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल कर लाखों लोगों तक पहुंच बनाने में कामयाब रहे हैं.

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