भारतीय शोधकर्ताओं ने पिछले कुछ वर्षों में एक चिंताजनक आकलन किया है कि एटोपिक डर्मेटाइटिस (AD) के केवल 40% मामलों में ही रोग की पहचान हो पाती है. बाकी मामलों में रोग की पहचान नहीं हो पाती है या उन्हें आम रैश या माइल्ड एक्जिमा समझकर हल्के में लिया जाता है, जो चौंकाने वाली बात है.
एटोपिक डर्मेटाइटिस बच्चों में सबसे ज्यादा पाए जाने वाले त्वचा रोगों में से एक है. दुनिया में 15 से 20% और भारत में लगभग 7% बच्चों को यह रोग है.
हालांकि यह प्रतिशत यूरोप (22%), स्कैंडिनेवियाई देशों (27%) और अमेरिका (25%) से बहुत कम है, लेकिन दुनिया में भारत बच्चों की सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है और इसलिए एटोपिक डर्मेटाइटिस से पीड़ित बच्चों की कुल संख्या के मामले में भारत दूसरे देशों से काफी आगे है.
यह आश्चर्य की बात है कि इस इन्फ्लेमेटरी स्किन डिजीज, जिससे काफी कष्ट हो सकता है, उस पर अब भी भारत में जागरुकता की कमी है और उसे ठीक से मैनेज नहीं किया जाता है.
एटोपिक डर्मेटाइटिस को समझना
एटोपिक डर्मेटाइटिस एक्जिमा का सबसे आमतौर पर देखे जाने वाला रूप है. यह इन्फ्लेमेटरी स्किन कंडिशन और लंबे समय तक रहने वाला स्थाई रोग है.
एटोपिक डर्मेटाइटिस के लक्षण- सूखी, खुजली वाली त्वचा, जिसे रगड़ने पर तरल निकलता है और जिसमें समय-समय पर जलन होती है.
इसका असल कारण नहीं पता है, लेकिन एलर्जी, एक्जिमा की फैमिली हिस्ट्री, अस्थमा या हे फीवर इसके जोखिम के प्रमुख कारक हैं.
जिन आम लक्षणों/ संकेतों के आधार पर एटोपिक डर्मेटाइटिस की पहचान होती है, खासकर मध्यम से लेकर गंभीर मामले में, वे हैं- रैशेज, जो शरीर के बड़े भाग को कवर कर सकते हैं. उनमें खुरदुरे, रूखे या शल्की चकत्ते, तेज खुजली, त्वचा पर घाव और सूखापन, दर्द, त्वचा का फटना, लाली या गहरा रंग, पपड़ी बनना या तरल का रिसाव भी शामिल हो सकता है.
एटोपिक डर्मेटाइटिस का बोझ
एटोपिक डर्मेटाइटिस कम से कम 2% से 3% वयस्कों और 25% बच्चों को प्रभावित करता है. यह भी कहा जाता है कि भारत के 10% से 15% लोगों को उनके जीवन के पहले साल से ही एलर्जिक रोगों की अनुवांशिक प्रवृत्ति और एटोपिक डर्मेटाइटिस का कोई रूप होता है. एटोपिक डर्मेटाइटिस (एडी) का बोझ बहुत ज्यादा है. बचपन में होने वाला मध्यम से लेकर गंभीर एडी परिवार को टाइप 1 डायबिटीज से ज्यादा प्रभावित करता है.
इस बीमारी का बोझ बहुत ज्यादा है और इसके साथ एटोपिक (एलर्जिक रोगों के विकास की अनुवांशिक प्रवृत्ति) और मनोवैज्ञानिक रोग भी ज्यादा होते हैं, जैसे, एंग्जाइटी और डिप्रेशन. अगर एडी पर ठीक से काबू नहीं किया जाए, तो इन रोगों का बोझ और भी बढ़ जाता है.
एडी के लगभग 90% रोगियों को रोजाना खुजली होती है और दो-तिहाई रोगियों को नींद लेने में परेशानी होती है.
इसके साथ अन्य बीमारियों में दूसरे एटोपिक विकार, संक्रमण, मोटापा, विकास में रूकावट, डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर और मानसिक बीमारियां, स्पीच डिसऑर्डर, सिरदर्द, ऑर्गन-स्पेसिफिक ऑटोइम्युनिटी और एनीमिया शामिल हैं.
स्थाई रोग विशेष रूप से भारी होता है और उसका सम्बंध शुरुआती, पहले से मौजूद अवधि और गंभीरता से हो सकता है. हालांकि, स्थाई और जल्दी शुरुआत खासकर भविष्य की फूड और रेस्पिरेटरी एलर्जी की सूचना देती है, जब रोग ज्यादा गंभीर दिखाई देता है.
हालांकि, इस पर अब भी ध्यान नहीं दिया जाता है. भारत में इससे जुड़े डेटा बहुत सीमित है और इसलिए केवल भारत में ही नहीं, दुनिया भर में इस रोग के निदान के संसाधनों की कमी है.
जागरुकता और बेहतर इलाज की जरूरत
विशेषज्ञों ने देखा है कि एडी से पीड़ित रोगियों में सुसाइड की प्रवृत्ति 44% ज्यादा होती है, उन रोगियों की तुलना में, जिन्हें एटोपिक डर्मेटाइटिस नहीं है.
इसके रोगी अक्सर नींद लेने में परेशानी, काम की प्रोडक्टिविटी में कमी, गतिविधियों में ज्यादा विकृति और सुसाइड की प्रवृत्ति का सामना करते हैं.
इससे पता चलता है कि एटोपिक डर्मेटाइटिस से न केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ता है, बल्कि अन्य रोग भी हो जाते हैं.
एडी के रोगियों में बैक्टीरियल, वायरल और फंगल स्किन इंफेक्शंस की प्रवृत्ति भी रहती है.
ज्यादातर वयस्क लोग एडी का इलाज बिना डॉक्टरी पर्चे पर मिलने वाले प्रोडक्ट्स से करने की कोशिश में रहते हैं, जब तक कि वह गंभीर अवस्था में न पहुंच जाए, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती.
इसका कारण रोग पर जागरुकता की कमी है. हालांकि, एटोपिक डर्मेटाइटिस के शुरुआती संकेतों और आम लक्षणों को देखते ही इस पर काम करने और डर्मेटोलॉजिस्ट को दिखाने से स्थिति को बदला जा सकता है.
एटोपिक डर्मेटाइटिस के रोगियों में रोग की शीघ्र पहचान, अच्छी देखभाल और सही समय पर इलाज से उनके जीवन की गुणवत्ता बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है.
कुल मिलाकर 80-85% एटोपिक डर्मेटाइटिस 2-15 साल के बच्चों में पाया जाता है, जब शारीरिक और मानसिक विकास, पढ़ाई और कॅरियर डेवलपमेंट जरूरी होते हैं. इसलिए इससे पीड़ित बच्चे के भविष्य की साइको-सोशल ग्रोथ पर उसका दूरगामी प्रभाव होता है.
(डॉ. संदीपन धर कोलकाता के इंस्टीट्यूट ऑफ चाइल्ड हेल्थ में पीडियाट्रिक डर्माटोलॉजी के हेड और प्रोफेसर हैं.)
(ये लेख आपकी सामान्य जानकारी के लिए है, यहां किसी बीमारी के इलाज का दावा नहीं किया जा रहा, बिना अपने डॉक्टर की सलाह लिए कोई उपाय न करें. स्वास्थ्य से जुड़ी किसी भी समस्या के लिए फिट आपको डॉक्टर से संपर्क करने की सलाह देता है.)
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)